रायपुरः दीपावली (Dipawali) से दो दिन पहले धनतेरस (Dhanteras) का त्योहार मनाया जाता है. इस दिन भगवान धनवंतरी (God Dhanwantari) की विशेष पूजा की जाती है. धनवन्तरी को आयुर्वेद का जन्मदाता और देवताओं का चिकित्सक माना जाता है. शास्त्रों की मानें तो भगवान विष्णु के 24 अवतारों में 12वां अवतार भगवान धनवंतरी का था.
आइए आज हम आपको भगवान धनवंतरी की उत्पत्ति के बारे में बताते हैं, इसके साथ ही हम आपको बताएंगे कि आखिर क्यों धनतेरस के दिन धनवंतरी की पूजा की जाती है.
इसलिए धनतेरस में खरीदा जाता है पीला धातु
कहते हैं कि धनवंतरी का जन्म धनतेरस के दिन हुआ था, इसलिए इनकी पूजा इस दिन की जाती है. मान्यता तो ये भी है कि धनवंतरी की उत्पत्ति के समय वो अमृत से भरा कलश लेकर उत्पन्न हुए थे, इसलिए धनतेरस के दिन पीले पात्र या फिर पीली धातु खरीदने की परम्परा है.
धनवंतरी की उत्पति कैसे हुई
शास्त्रों की मानें तो भगवान धनवंतरी की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई. वे समुद्र में से अमृत का कलश लेकर निकले थे, जिसके लिए देवों और असुरों में संग्राम हुआ था. हालांकि कहावत तो ये भी है कि काशी के राजवंश में धन्व नाम के एक राजा ने उपासना करके अज्ज देव को प्रसन्न किया. उन्हें वरदान स्वरूप धनवंतरी नामक पुत्र मिला. जिसका उल्लेख ब्रह्म पुराण और विष्णु पुराण में मिलता है. वहीं ये भी माना जाता है कि समुद्र मंथन से उत्पन्न धनवंतरी का दूसरा जन्म था.
कुछ ऐसे हुआ धनवंतरी का तीसरा जन्म
एक ओर ये भी कहा जाता है कि गालव ऋषि जब प्यास से व्याकुल होकर वन में भटकर रहे थे. तो कहीं से घड़े में पानी लेकर जा रही वीरभद्रा नाम की एक कन्या ने उनकी प्यास बुझायी. इससे प्रसन्न होकर गालव ऋषि ने आशीर्वाद दिया कि तुम योग्य पुत्र की मां बनोगी. लेकिन जब वीरभद्रा ने कहा कि वे तो एक वैश्या हैं, तो ऋषि उसे लेकर आश्रम गए और उन्होंने वहां कुश की पुष्पाकृति आदि बनाकर उसके गोद में रख दी और वेद मंत्रों से अभिमंत्रित कर प्रतिष्ठित कर दी वही धनवंतरी कहलाए.
आयुर्वेद के जन्मदाता धनवंतरी
भगवान धनवंतरी वैद्य को आयुर्वेद का जन्मदाता माना जाता है. कहा जाता है कि उन्होंने विश्वभर की वनस्पतियों पर अध्ययन कर उसके अच्छे और बुरे गुण को प्रकट किया. धनवंतरी के हजारों ग्रंथों में से अब केवल धनवंतरी संहिता ही पाई जाती है, जो आयुर्वेद का मूल ग्रंथ है. आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वन्तरिजी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था. बाद में चरक आदि ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया.