
Many tribal leaders have been sidelined in the BJP.
रायपुर। छत्तीसगढ़ भाजपा में आदिवासी नेतृत्व कभी स्थापित नहीं हो पाया। जिन आदिवासी नेताओं को कमान सौंपी गई, उन्हें भी एक-एक कर किनारे लगा दिया गया अथवा पार्टी छोड़ने को मजबूर कर दिया गया। पार्टी में एक दर्जन से ज्यादा आदिवासी नेता है, जो अर्श से फर्श पर आ चुके हैं।
ताजा मामला नंदकुमार साय का है। साय छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद नेता प्रतिपक्ष चुने गए। 2003 के विधानसभा चुनाव में उन्हें मरवाही से तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी के खिलाफ मैदान में उतारा गया। साय जानते थे कि वह जोगी के खिलाफ चुनाव नहीं जीत सकते हैं। शायद यही वजह थी कि उन्होंने मरवाही के साथ-साथ तपकरा से भी टिकट मांगी थी। पार्टी ने उन्हें 2 सीटों से लड़ाने से इंकार कर दिया। नतीजतन साय मरवाही से हार गए और बाद में उन्हें दिल्ली की राजनीति के लिए रवाना कर दिया गया। करीब दो दशक तक दिल्ली की खाक छानने के बाद साय अब कांग्रेस की पिच से प्रदेश की राजनीति करेंगे। 2003 में भाजपा की सरकार बनने के बाद रामविचार नेताम मंत्री बनाए गए। उन्होंने आदिवासी विधायकों के साथ डिनर पार्टी की तो प्रदेश नेतृत्व नाराज हो गया और उन्हें लामबंदी न करने की सख्त हिदायत दी गई। इसके बाद नेताओं को किनारे लगाने का खेल शुरू हुआ। नेताम को भी दिल्ली की राजनीति में व्यस्त कर दिया गया।

रमन सरकार में मंत्री रहे गणेशराम भगत की पहले टिकट काटी गई फिर तल्ख बयानबाजी के कारण पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। यही हाल कांकेर से चार बार सांसद रहे सोहन पोटाई का हुआ। रमन सरकार में पावरफुल आईपीएस अफसर की प्रताड़ना झेलने के बाद उन्होंने अपना दुखड़ा तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह व पार्टी के राष्ट्रीय सह- संगठन मंत्री सौदान सिंह के समक्ष भी रोया। फिर भी उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। अंततः उन्हें भी पार्टी से निकाल दिया गया । कांकेर से ही कांग्रेस के सांसद रहे अरविन्द नेताम कुछ समय ही भाजपा में रह पाये। वे भी पार्टी की आंतरिक राजनीति में समायोजित नहीं हो पाए। नतीजतन उन्हें वापस कांग्रेस में लौटना पड़ा। कांकेर के मौजूदा सांसद विक्रम उसेंडी को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और 6 महीने बाद उनकी छुट्टी कर दी गई। इसके बाद अध्यक्ष बनाए गए हैं विष्णुदेव साय को बिना बताए विश्व आदिवासी दिवस के दिन पद से हटा दिया गया। इनके अलावा ननकीराम कंवर, रामसेवक पैकरा समेत कई नाम हैं, जो गुमनामी में जी रहे हैं। यह बात अवश्य है कि सरगुजा की महिला आदिवासी नेता रेणुका सिंह केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान हासिल कर पाई है। वही, सरगुजा के ही शिवप्रताप के साथ उनके पूरे परिवार की भी उपेक्षा हुई हैं। फिलहाल भाजपा में बलीराम कश्यप, लरंग साय और नंदकुमार साय जैसे कद्दावर आदिवासी नेता नहीं है, जिनकी पूरे प्रदेश में खासी पहचान और पकड़ हो।