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छत्तीसगढ़ में घटता वन परिक्षेत्र, कागजों में वृक्षारोपण

रायपुर, 5 जून 2025अखिल पांडे ): छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से अब तक करीब तीन प्रतिशत वन क्षेत्र कम हो गया है। कारण कई हैं, लेकिन हरियाली में वृद्धि के काम भी बहुत देखे गए पर परिणाम नहीं दिखा। प्राकृतिक संसाधनों का खूब दोहन राज्य में हो रहा है लेकिन प्रकृति को संवारने केवल दावे हुए हैं। दिखावा भी ऐसा कि, पौधा रोपण के नाम पर हर साल करोड़ों खर्चे जाते हैं, लेकिन होता क्या है यह सब जानते हैं। हरियाली बढ़ाने पर नवाचार नहीं हुआ और जब गर्मियों में जल संकट गहराता है तो पर्यावरण की चिंता सामने आती है, लेकिन मानसून आने के बाद यह चिंता भी फूर्र हो जाती है।राज्य बनने के समय सन् 2000 में प्रदेश में 44.21 प्रतिशत क्षेत्र वनाच्छादित था। अब जब राज्य बने करीब 25 साल होने को है तो राज्य में यह क्षेत्र 41.21 हो गया है। हालांकि 2023 में वन क्षेत्रों में मामूली वृद्धि की बात सामने आई थी, लेकिन इन दावों पर सवाल भी सामने आए थे।छत्तीसगढ़, जिसे अपनी प्राकृतिक संपदा और घने जंगलों के लिए जाना जाता है, आज एक गंभीर पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहा है। भारतीय वन सर्वेक्षण (ISFR) की हालिया रिपोर्ट्स और अन्य स्रोतों के अनुसार, राज्य में वन क्षेत्र में कमी और खनन गतिविधियों के कारण जैव विविधता पर खतरा मंडरा रहा है।

वन क्षेत्र में बदलाव: आंकड़ों का सच

2000 में स्थिति: छत्तीसगढ़ के गठन के समय, रिकॉर्डेड वन क्षेत्र (RFA) 59,772 वर्ग किलोमीटर था, जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र (135,191 वर्ग किमी) का 44.21% था।2021 की स्थिति: ISFR 2021 के अनुसार, वन क्षेत्र घटकर 55,717 वर्ग किलोमीटर (41.21%) हो गया।2023 की स्थिति: ISFR 2023 ने वन क्षेत्र में मामूली वृद्धि दर्ज की, जो 55,811.75 वर्ग किलोमीटर (41.3%) है। यह 2021 की तुलना में 94.75 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्शाता है। हालांकि, वन और वृक्ष आवरण में 683.62 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि के साथ छत्तीसगढ़ देश में शीर्ष स्थान पर है।हालांकि,  दावा किया है कि छत्तीसगढ़ में पिछले दो वर्षों में वन क्षेत्र में 19.13% की कमी दर्ज की गई, जो ISFR 2023 के आंकड़ों से मेल नहीं खाता। यह विसंगति संभवतः विशिष्ट क्षेत्रों (जैसे हसदेव अरण्य) या गलत व्याख्या के कारण हो सकती है।

हसदेव अरण्य: खनन का केंद्र

हसदेव अरण्य, जिसे छत्तीसगढ़ का “फेफड़ा” कहा जाता है, खनन गतिविधियों के कारण सबसे अधिक प्रभावित हुआ है।

खनन का प्रभाव: 2019 में, केंद्र सरकार ने हसदेव अरण्य में 1.7 लाख हेक्टेयर (1,700 वर्ग किमी) वन क्षेत्र को कोयला खनन के लिए मंजूरी दी। 2012 से अब तक 81,000 पेड़ काटे जा चुके हैं, और 3,99,000 पेड़ों के कटने का खतरा है

पर्यावरणीय नुकसान: खनन ने जैव विविधता को नष्ट किया, मिट्टी का कटाव बढ़ाया, और जल संसाधनों को प्रदूषित किया। उदाहरण के लिए, रायगढ़ में केलो नदी खनन अपशिष्ट के कारण प्रदूषित हो गई है।

आदिवासी समुदायों पर प्रभाव: हसदेव के आदिवासी समुदाय, जिनकी आजीविका वनों पर निर्भर है, विस्थापन और आजीविका के नुकसान का सामना कर रहे हैं।

अतिक्रमण: वनाधिकार पट्टों के लिए वनों में अतिक्रमण बढ़ा है, खासकर बस्तर में, जहां साल के वनों का क्षेत्र 2,000 वर्ग किमी से घटकर 895.076 वर्ग किमी रह गया है।

वृक्षारोपण की नाकामी: हरित छत्तीसगढ़ और वन महोत्सव जैसे अभियानों में लाखों पौधे रोपे गए, लेकिन देखभाल की कमी के कारण जीवित रहने की दर कम रही। सोचने वाली बात यह है कि वृक्षारोपण 25 साल पहले होते थे उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। आज भी पौधे रोपकर बिना किसी सुरक्षा की चिंता के पौधारोपण की कहानी फैलाई जाती है। जबकि इन पौधों के भविष्य पर कोई विचार नहीं किया जाता। सरकार में यह दूरदर्शिता की कमी देखी गई कि, पौधारोपण के बाद इन पौधों को बचाने पर विचार नहीं किया गया। इसमें यह बात लगातार सामने आई कि, पौधारोपण ठेके पर दिया जाए। खासकर महिला समूह को। जिसमें दो साल के वृक्षों की गिनती कर भुगतान किया जाए। दूसरी बात पौधे रोपने के लिए यह नियम भी जरूरी हो कि, पौधों के बजाय वृक्षों का रोपण किया जाए। यानी एक साल के पेड़ का रोपण किया जाए। जिसमें पेड़ के वृक्ष बनने की संभावना बढ़ जाती है। साथ ही पेड़ों के सूखने या मरने पर दूसरे पेड़ लगाने पर विचार किया जाना चाहिए।

छत्तीसगढ़ सरकार ने वन संरक्षण के लिए कई योजनाएं शुरू कीं:

हरित छत्तीसगढ़ अभियान: लाखों पौधों का रोपण, लेकिन जीवित रहने की दर पर निगरानी की कमी।कम्पा (Compensatory Afforestation): खनन से प्रभावित क्षेत्रों में 12 लाख जल संरक्षण संरचनाएं बनाई गईं।नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी: भूपेश बघेल सरकार (2018-2023) ने जल संरक्षण और बाड़ी विकास को बढ़ावा दिया, लेकिन इस पर काम गंभीरता से नहीं हुआ।एक पेड़ माँ के नाम: 2024 में शुरू इस अभियान ने सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा दिया। लेकिन इस पर भी जनभागीदारी नहीं हो सकी।

राज्य में लालफीताशाही या नौकरशाही की वजह से कभी हरियाली पर विशेष जोर नहीं दिया गया। पर्यावरण की बात कागजों तक सीमित रही। बल्कि यह योजना एक प्रकार से भ्रष्टाचार का जरिया बन गया है। कागजों में पेड़ उगाए जाते हैं और कागजों में ही पेड़ों का रोपण कर दिया जाता है। वृक्षारोपण सही दिशा में आगे बढ़ाया जाए तो सरकारी भू-माफियाओं पर भी लगाम लग सकेगा। गांवों में जिस तादाद में बेजा-कब्जा हुआ है वह भी गांवों में निस्तार की समस्या को बढ़ा रहा है। सरकारी जमीन पर वृक्षारोपण होता तो अवैध कब्जा पर लगाम लग सकता है।

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