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खैरागढ़ उपचुनाव के बहाने कुछ बातें – दिवाकर मुक्तिबोध

रायपुर छत्तीसगाड़  के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने आसानी से ‘सत्ता का कथित सेमीफाइनल ‘ जीत लिया है। खैरागढ़ उपचुनाव को वे सत्ता का सेमीफाइनल ही मानते थे। भाजपा भी इसे सेमीफाइनल मानकर चल रही थी। यहां 12 एप्रिल को मतदान हुआ और 16 को मतगणना के साथ ही यह सीट भी कांग्रेस के खाते में चली गई जो 2018 के विधानसभा चुनाव में जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के पास थी। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद यह चौथा उपचुनाव था। इसके पूर्व दंतेवाड़ा , चित्रकोट व मरवाही सीट भी अच्छी खासी मार्जिन से पार्टी ने जीत ली थी। लेकिन खैरागढ़ में धुआंधार प्रचार का जैसा नजारा पेश किया गया, उसे अभूतपूर्व ही कहा जाएगा । दरअसल सत्ता के इस उपांत्य मुकाबले को भाजपा ने भी बहुत गंभीरता से लिया था। जनता के बीच अपनी मौजूदगी और स्वीकार्यता का अनुमान लेने और तदानुसार रणनीति बनाने का यह अच्छा अवसर था क्योंकि अगले वर्ष के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसलिए अपने प्रत्याशी कोमल जंघेल को जिताने उसने एडीचोटी का जोर एक कर दिया था। लेकिन जैसा कि प्रचारित था, मुकाबला बहुत संघर्षमय होगा, वैसा कतई नहीं हुआ। विधानसभा चुनाव में बीस हजार वोटों की हार बडी हार मानी जाती है। बहरहाल भाजपा पराजित जरूर हुई किंतु उसने इस बात का स्पष्ट संकेत दिया कि छत्तीसगढ़ के अगले विधानसभा चुनाव में नतीजे एकतरफा नहीं आएंगे जैसे 2018 में आए थे। उस चुनाव में 90 सीटों की विधानसभा में उसके केवल 15 विधायक पहुंच पाए थे और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का छत्तीसगढ़ मिशन 65 ‘प्लस’ बुरी तरह ध्वस्त हो गया था।

बहरहाल विपक्ष की भूमिका में ढाई साल गुजारने के बावजूद भाजपा अपनी जमीन ठीक से तैयार नहीं कर पाई है, इसका उदाहरण खैरागढ़ उपचुनाव को माना जा सकता है। यहां संगठन की पूरी ताकत लगाने के बावजूद भाजपा के वोटों में कोई खास इजाफा नहीं हुआ। 2018 की तुलना में उसके केवल 5970 वोट बढे। प्रत्याशी कोमल जंघेल ही थे जिन्हें तब 61516 मत मिले थे जो इस बार बढकर 67481 हुए हैं। लेकिन 2018 का वह चुनाव त्रिकोणीय था जिसमें कांग्रेस तीसरे स्थान पर रही थी। मुख्य संघर्ष हुआ जनता कांग्रेस छतीसगढ़ और भाजपा के बीच। जोगी कांग्रेस के देवव्रत सिंह एक हजार से भी कम वोटों से यह चुनाव जीत पाए थे। जाहिर है उनके कुल 61516 वोटों में से अधिकतम वोट इस उप चुनाव में कांग्रेस की यशोदा वर्मा की झोली में गिरे। उन्हें 87640 मत मिले जबकि 2018 में कांग्रेस के प्रत्याशी गिरवर जंघेल को 31811 वोट मिले थे। यानी उपचुनाव में कांग्रेस के प्रतिबद्ध वोटों का विभाजन थमा और उसे करीब 56 हजार वोटों का फायदा हुआ।

वैसे भी खैरागढ़ उपचुनाव कांग्रेस के लिए पिछले उपचुनावों के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण था। विधानसभा चुनाव के 17 महीने पहले किसी उपचुनाव में हार को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था इसलिए चुनाव प्रचार व बूथ मैनेजमेंट में कोई कसर नहीं छोडी गई। स्वयं मुख्यमंत्री भूपेश ने कमान सम्हाली और क्षेत्र में अनेक जनसभाएं व रैलियां कीं। उन्होंने भाजपा की चुनौती को कमतर नहीं आंका। इसके अलावा कांग्रेस की जीत के कुछ और भी कारण रहे हैं। मसलन चुनाव के तुरंत बाद खैरागढ़ को जिला बनाने का वायदा , विधानसभा चुनाव के समय का करीब आना और सत्ताधारी दल के उम्मीदवार को जिताने की आम मतदाताओ की मानसिकता। लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण है मुख्यमंत्री एवं सरकार के कामकाज के प्रति जनता का विश्वास। विशेषकर ग्रामीणोत्थान योजनाओं का लाभ किसानों, खेतिहर श्रमिकों, मजदूरों व ग्रामीण महिलाओं को विभिन्न रूपों में प्राप्त होना। इसमें दो राय नहीं है कि शहरी मतदाता भले ही कांग्रेस सरकार से पूर्णत: संतुष्ट न हो, सरकारी कामकाज से जुडी रोजमर्रा की परेशानियां कम न हुई हों किंतु गांवों के मतदाता खुश हैं और यदि गांव संतुष्ट है तो इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगले विधानसभा चुनाव में भी राज्य की कांग्रेस सरकार गांवों की गलियों से होकर शहर पहुंचेगी। यह भी तय प्रतीत होता है कि नवंबर 2023 के विधानसभा चुनाव के दौरान व्यवस्था के खिलाफ चलने वाली लहर की गति भी धीमी रहेगी। जाहिर है इसका फायदा कांग्रेस को अपनी सत्ता कायम रखने मदद के रूप में मिलेगा। बशर्ते भाजपा को सरकार के खिलाफ कोई नया व महत्वपूर्ण मुद्दा हाथ न लगे।

खैरागढ़ उपचुनाव के बहाने ये छोटी मोटी राजनीतिक संभावनाएं हैं। जब अधिकतम राज्यों में भाजपा का परचम लहरा रहा हो, जिसने हाल ही में सम्पन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में से चार जीत लिए हो और केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व गृहमंत्री अमित शाह की ताकतवर जोडी मौजूद हो, तब आगामी चुनाव में वह छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के नेतृत्व में उस कांग्रेस को खुली छूट नहीं दे सकते जिसने प्रदेश भाजपा को रसातल में पहुंचा दिया है। 2003 से 2018 तक यानी पंद्रह साल राज करने वाली पार्टी के मात्र 15 विधायक ! भाजपा इस अंक को उलटने के लिए पूरा जोर लगा देगी जिसकी रणनीतिक तैयारियां काफी पहले शुरू हो चुकी हैं। इस बात की पूरी संभावना है कि पिछले लोकसभा चुनाव की तरह वह 2023 के विधानसभा चुनाव में भी अधिकतम नये चेहरों पर दांव लगाएगी जो पार्टी के लिए एक सकारात्मक कारण रहेगा। दूसरा लाभ उसे कांग्रेस की अंदरूनी कलह से भी मिल सकता है जो 2018 के चुनाव को छोड़कर पूर्व के प्रत्येक विधानसभा चुनाव में स्पष्टतः नजर आता रहा है और इसी वजह से कांग्रेस लगातार चुनाव हारती रही है। पिछला चुनाव कांग्रेस इसलिए जीत पायी क्योंकि जनता भाजपा के पन्द्रह वर्षों के शासन – कुशासन ऊब गई थी, उससे पिंड छुडाना चाहती थी लिहाजा इच्छित परिवर्तन के लिए उसके सामने भूपेश बघेल का साफ सुथरा चेहरा विकल्प के रूप में मौजूद था और था आंतरिक कलह से मुक्त कांग्रेस का मजबूत संगठन। इसलिए कांग्रेस ने एतिहासिक विजय दर्ज की। अब खैरागढ़ में जीत के साथ ही उसके विधायकों की संख्या बढकर 71 हो गई हैं।

विधानसभा 2023 के लिए अभी काफी वक्त शेष है। खैरागढ़ में जीत के बावजूद कांग्रेस को किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए। संगठन के स्तर पर उसे बहुत काम करने की जरूरत है।किंतु सत्ता का जैसा चरित्र होता है , ढाई साल बितते-बितते कांग्रेस की राजनीति में सरकार में भागीदार टी एस सिंहदेव के रूप में नया शक्ति केंद्र उभरा जिसकी हलचल जारी है। कांग्रेस हाईकमान का कथित वादा था बघेल के बाद बचे ढाई वर्षों के लिए टी एस मुख्यमंत्री बनेंगे। गुटीय प्रतिद्वंदिता ने यहीं से जोर पकड़ा। भारी गुणाभाग के बाद भी टीएस के हाथ में कमान नहीं आई । टी एस बाबा ने अप्रतिम धैर्य का परिचय देते हुए यथस्थिति कबूल तो कर ली लेकिन धधकते अंगारे ठंडे पड गए ,ऐसा नहीं कहा जा सकता। अतः हाईकमान को बीच का कोई रास्ता निकालना होगा। आंतरिक संंकट, जो अभी भले ही दबा हुआ हो, से पार पाना जरूरी होगा। यह निश्चित है कि उन्हें संतुष्ट किए बिना कांग्रेस चुनाव मैदान में आगे नहीं बढ सकती। यह काम किस तरह से होगा, इस पर कांग्रेस की चुनावी संभावना टिकी हुई है क्योंकि इतिहास गवाह है कि कांग्रेस ही कांग्रेस को हराती हैं। छत्तीसगढ़ में दिवंगत विद्दाचरण शुक्ल व अजीत जोगी इसके उदाहरण थे। पंजाब व उत्तराखंड का हश्र तो सभी जानते हैं।

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