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डकैत लुक्का के डर से खौफ खाते थे अंग्रेज, अटकी रहती थीं फिरंगियों की सांसें

चंबल : आजादी के 75 साल पूरे होने पर देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है. इसी बीच हम आपको एक ऐसे डकैत की कहानी बताने जा रहे हैं जिसके डर से अंग्रेजों का भी गला सूख जाता था और शरीर से पसीना छूटने लगता था. इस डकैत का नाम था- लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का. जिसने देश के आजाद होने पर कई किलो लड्डू बांटकर खुशियां मनाई थीं. इस डकैत के डर से अंग्रेज आगरा से ग्वालियर जाने में भी खौफ खाते थे. जी हां, डकैत लुक्का का नाम सुनकर अंग्रेज कांप जाया करते थे.

लुक्का

दरअसल, कहानी कुछ यूं शुरू होती है कि भिंड (मध्य प्रदेश) जिले स्थित बहुआ गांव में रहने वाले कुछ रसूखदार लोग लोकमन दीक्षित के परिवार पर जुल्म करने लगे थे. हद तो तब हो गई जब लोकमन के पिता को गांव के दबंगों ने चंबल नदी में फेंक दिया. अपने पिता के साथ किया गया यह बर्ताव बेटे से बर्दाश्त नहीं हुआ और वह हाथों में हथियार थामकर चंबल के बीहड़ों में बागी हो गया.

डकैत मानसिंह की गैंग में शामिल होकर लोकमन दीक्षित ने अपने दुश्मनों से बदला लिया. इसके बाद वह डकैत मानसिंह की गैंग के सबसे तेज तर्रार सदस्य बन गए. मानसिंह की गैंग में ही डकैत रूपा भी शामिल थे. अपने नियमों में रहकर डकैत लोकमन दीक्षित वारदातों को अंजाम देते थे.

लुक्का की गैंग में यह सख्त नियम था कि डकैती के समय गैंग का कोई भी सदस्य किसी महिला की तरफ आंख उठाकर नहीं देखेगा. नाफरमानी करने वाले शख्स को तुरंत सजा भी दी जाती थी. डकैत लुक्का को डकैतों का पृथ्वीराज चौहान भी कहा जाता था, क्योंकि लुक्का का निशाना इतना सटीक था कि वह आवाज सुनकर भी लक्ष्य को साध लेते थे.

डकैत लोकमन दीक्षित का खौफ अंग्रेजों के शासन काल में अफसरों में भी देखने को मिला था. लुक्का ने अंग्रेजों को कई बार अपना निशाना बनाया. अंग्रेजों के ठहरने वाले ठिकानों पर डकैत लुक्का ने कई बार हमला किया और हथियार लूट लिए.

जब अंग्रेजों की टोली आगरा से ग्वालियर के लिए जाती थी तो उन्हें चंबल के इलाके से होकर गुजरना पड़ता था. चंबल के इलाके से गुजरते वक्त उन्हें हमेशा डकैत लुक्का का डर सताता रहता था. डकैत लुक्का गिरोह अंग्रेजों के दल पर हमला कर देता था और उन्हें मारकर उनका हथियार लूट लिया करता था.

ऐसा कई बार हुआ जब अंग्रेजों पर डकैत लुक्का का कहर टूटा. इस वजह से अंग्रेज अफसर आगरा से ग्वालियर जाते वक्त डकैत लुक्का के खौफ की वजह से डरे हुए रहते थे और ग्वालियर पहुंचने पर खुद को सुरक्षित महसूस करते थे.

डकैत मानसिंह और डकैत रूपा की मौत के बाद लोकमन दीक्षित ने ही गिरोह की कमान अपने हाथों में ले ली. उसने अपने नियमों का गिरोह से सख्ती से पालन करवाया. जब देश को स्वतंत्रता मिली तो लोकमन दीक्षित गिरोह ने लड्डू बांटे.

बताया जाता है कि डकैत लुक्का ने देश के आजाद होने की खुशी में कई दिनों तक लड्डू बांटे थे और विनोबा भावे से प्रेरित होकर लोकमन दीक्षित ने साल 1960 में आत्मसमर्पण कर दिया था. उसके बाद वह मध्य प्रदेश के भिंड शहर में ही रहने लगे.

लोकमन दीक्षित के तीन बेटे और एक बेटी थी. उन्होंने आत्मसमर्पण के बाद पुलिस का कई बार सहयोग किया. दीक्षित साल 2017 में 99 साल की उम्र पूरी करने के बाद इस दुनिया से चल बसे. लोकमन दीक्षित को याद करते हुए उनके नाती बताते हैं कि उनके बाबा अपने उसूलों के पक्के हुआ करते थे.

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