कवर्धा (कबीरधाम)। कबीरधाम जिले के कवर्धा में प्रशासनिक गलियारों के भीतर एक ऐसा नाम वर्षों से चर्चा में है, जिसे लोग अब ‘सिस्टम का बाबू’ कहने लगे हैं। आरोप है कि पिछले दस वर्षों से यह बाबू कभी एसडीएम कार्यालय तो कभी तहसील कार्यालय में तैनात किया जाता रहा—और संयोग से वही दफ्तर चुने गए जहाँ फाइलों की ताकत, हस्ताक्षरों की कीमत और “मैनेजमेंट” का खेल सबसे ज्यादा चलता है।
स्थानीय नागरिकों, वकीलों, किसानों और आवेदकों का आरोप है कि बिना “खर्चा-पानी” कोई काम आगे नहीं बढ़ता। डायवर्सन, सीमांकन, नामांतरण से लेकर सामान्य प्रशासनिक कार्य तक—हर फाइल के साथ कथित तौर पर लेन-देन की अनकही शर्तें जुड़ी रहती हैं।
शिकायतों का अंबार, कार्रवाई शून्य
हैरानी की बात यह है कि इस बाबू के खिलाफ कलेक्टर कार्यालय से लेकर उच्च अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों तक कई बार शिकायतें पहुंच चुकी हैं। शिकायतकर्ताओं का दावा है कि लिखित आवेदन, मौखिक प्रस्तुतियाँ, यहां तक कि मंत्री स्तर तक बात रखी गई, पर नतीजा वही—न जांच, न तबादला, न निलंबन।
हर बार ‘संवेदनशील कुर्सी’ ही क्यों?
सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब किसी कर्मचारी पर लगातार आरोप लगते हों, तो उसे बार-बार उन्हीं संवेदनशील पदों पर क्यों बैठाया जाता है? क्या यह महज संयोग है, या फिर ऊपर तक संरक्षण का संकेत? क्या फाइलों के खेल में कई चेहरे शामिल हैं, जिनकी परछाईं में यह बाबू सुरक्षित बना हुआ है?
प्रशासन की चुप्पी, जनता में आक्रोश
मामले पर प्रशासन की चुप्पी संदेह को और गहरा करती है। अगर आरोप निराधार हैं, तो स्वतंत्र जांच से सच्चाई सामने क्यों नहीं लाई जाती? और अगर आरोप सही हैं, तो कार्रवाई में देरी किसके हित में है?
जांच की मांग तेज
स्थानीय संगठनों और जागरूक नागरिकों ने मांग की है कि
मामले की स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच कराई जाए,
पिछले 10 वर्षों की पोस्टिंग, फाइल मूवमेंट और संपत्ति की जांच हो,
जांच पूरी होने तक संबंधित बाबू को संवेदनशील पद से हटाया जाए।
आख़िरी सवाल
कवर्धा की जनता पूछ रही है—क्या कानून सिर्फ आम आदमी के लिए है?
या फिर कुछ लोग सिस्टम के भीतर इतने मजबूत हो चुके हैं कि शिकायतें भी उनके सामने बेअसर हो जाती हैं?
अब देखना यह है कि प्रशासन इस मामले को गंभीरता से लेता है या फिर फाइलों के ढेर में दबा देता है।
