
रायपुर। आक्रमण केवल देश पर नहीं होते। संस्कृति पर होते हैं। संस्कारों पर होते हैं। समाज पर भी होते हैं। जब ऐसा होता है, तब संस्कृति विकृति में बदलने लगती है। संगठन में विघटन होता है। समाज असामाजिक होने लगता है। रविवार को प्रथम दादा गुरुदेव जिनदत्त सूरीजी के स्वर्गारोहण दिवस पर उपाध्याय प्रवर युवा मनीषी मनीषसागरजी महाराज साहब ने यह बातें कही। वे विवेकानंद नगर स्थित ज्ञान वल्लभ उपाश्रय में धर्मसभा को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने कहा, घर में अगर बच्चों को भी थोड़े समय के लिए आजाद कर दें, तो उनके संस्कार बिगड़ने लगेंगे। बिगड़ना आसान है। सुधरना बड़ा कठिन है। ऐसी स्थिति भारत की भी होती रही। मुगलों, अंग्रेजों आदि के आक्रमण हुए। इन सबके बाद भी धर्म मिल रहा है, तो यह हम पर बहुत बड़ा उपकार है। यह अविस्मरणीय है। उन्होंने कहा कि तारे दिन में भी रहते हैं। दिखते केवल रात में हैं। ऐसे ही जब अरिहंत परमात्मा की प्रत्यक्ष उपस्थिति होती है, तो उनके अलावा बाकी सब गौण हो जाते हैं। एक वक्त आता है अरिहंत परमात्मा का समय भी समाप्त हो जाता है। प्रत्यक्ष उपस्थिति नहीं रहती। उनकी आत्मा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाती है। सूर्य के अस्त होने के बाद तारे नजर आने लगते हैं। वैसे ही अरिहंत परमात्मा के बाद आचार्यों की श्रृंखला चलती है। वे सितारों की तरह चमकने लगते हैं। रात्रि यानी अरिहंत परमात्मा की अनुपस्थिति में हमारा मार्गदर्शन करते हैं। इनमें इतनी ताकत है कि व्यक्ति जिंदगी के अंधकार में भी उबड़-खाबड़ रास्ते पार कर लेता है। न जाने कितने ही लोगों के अनंत उपकार की वजह से आज हमें यह धर्म मिला है।
एक काल ऐसा भी आया था, जब
साधु-साध्वी भी धर्म पथ से भटके
भगवान महावीर के जाने के 1200 साल बाद एक लंबा काल आया, जिसमें साधु-साध्वी भगवंत नीचे गिर गए। इतने नीचे गिर गए कि तांबुल आदि का सेवन करने लगे। केश लोच नहीं करते। मंदिरों में रहते। नाच-गाना देखने लगते। कुल मिलाकर पूरी संस्कृति में विकृति आ गई। 7वीं सदी से करीब-करीब 11वीं-12वीं सदी तक ऐसा चलता रहा। इसकी वजह उस दौर की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति रही। धर्म का दीया तब बुझने ही वाला था, उस काल में अगर धर्म को नहीं बचाया गया होता, तो आज क्या स्थिति होती! जिन शासन हमें इतनी पवित्रता के साथ नहीं मिल पाता। उस स्थिति में हमें वल्लभ सूरी, वर्धमान सूरी, जिनेश्वर सूरी मिले। आचार-विचार में सुधार किए। संस्कृति की सुरक्षा की।
दादा गुरुदेव का व्यक्तित्व देखकर
ही 1.30 लाख नूतन जैन बन गए
आज हम में से कई लोग सोचते हैं कि युग बदल गया है तो मूल्य भी बदलने चाहिए। अपवाद कह-कहकर उन्हीं अपवादों को मुख्य बना लेते हैं। कुछ ऐसे भी वर्ग हुए, जिन्होंने कहा कि हम कॉम्प्रोमाइज नहीं करेंगे। अपने आचारों में शिथिलता नहीं लाएंगे। इसी परंपरा में पहले दादा गुरुदेव जिनदत्त सूरी आए। उन्होंने महज 9 वर्ष की उम्र में दीक्षा ली। आत्म बल, ज्ञान बल, दर्शन बल, चारित्र्य बल बढ़ाया। अपने आप को उस ऊंचाई तक पहुंचाया कि उन्हें देखकर 1.30 लाख नूतन जैन बन गए। इसके पीछे केवल उनका व्यक्तित्व था। एक मां का उपकार बच्चा नहीं भूलता। वैसे ही अपने दादा गुरुदेवों का उपकार हमें कभी नहीं भूलना है। उनसे ही हमें यह पवित्र जैन धर्म मिला है।
चातुर्मास की शुरुआत 9 जुलाई से
चातुर्मास समिति के प्रचार-प्रसार सचिव चंद्रप्रकाश ललवानी व मनोज लोढ़ा ने बताया कि चातुर्मास की शुरुआत 9 जुलाई से होगी। दस जुलाई को गुरु पूर्णिमा का आयोजन किया गया है ।