नई दिल्ली International Day of Disabled Persons: हर साल 3 दिसंबर को दुनियाभर में ‘विश्व दिव्यांग दिवस’ मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का अहम मकसद है दिव्यांगों के प्रति लोगों के व्यवहार में बदलाव लाना और उनमें उनके अधिकारों के प्रति जागरुकता लाना। हर साल इस दिन दिव्यांग के विकास, कल्याण, समाज में उन्हें बराबरी का दर्जा देने पर गहन चर्चा की जाती है।

भारत में 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार विकलांग लोगों की संख्या लगभग 26.8 मिलियन है, यह जनसंख्या देश की कुल आबादी का 2.21 प्रतिशत है। हालांकि विकलांगता के मुद्दों पर काम कर रहे विकलांग अधिकार कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों के अनुसार जनगणना में ये संख्या वास्तविक संख्या का बहुत छोटा सा हिस्सा है। विकलांग व्यक्तियों का ‘अंतरराष्ट्रीय दिवस’ सिर्फ शारीरिक स्थितियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें मानसिक विकलांगता भी शामिल है। नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस द्वारा 2018 में किए गए एक सर्वे के अनुसार लगभग 3.9 मिलियन लोग साइकोसोशल डिसैबिलिटीज (मनोसामाजिक विकलांगता) से पीड़ित है। इस तरह की विकलांगता में डिप्रेशन से पीड़ित होना और स्ट्रेस डिसऑर्डर जैसी अन्य मानसिक बीमारियों और डिस्लेक्सिया या डाउन सिंड्रोम सहित दिमागी बीमारी से पीड़ित होना शामिल है।

रोज़गार के अवसर कम

पोद्दार फॉउंडेशन की मैनेजिंग ट्रस्टी, पोद्दार वेलनेस लिमिटेड की डायरेक्टर, मेन्टल हेल्थ एक्सपर्ट डॉ. प्रकृति पोद्दार का कहना है , “सामाजिक कलंक और नज़रिये, शैक्षिक और रोज़गार के अवसरों की कमी जैसी बाधाओं से विकलांग लोग समाज में हर दिन दो चार होते रहते हैं। विकलांग व्यक्तियों के लिए ढांचागत, संस्थागत और व्यवहार संबंधी बाधाओं को दूर करने के मामले में भारत अभी भी काफी पीछे है। हाल के सालों में हालांकि विकलांगता के प्रति चर्चा ने निश्चित रूप से गति प्राप्त की है, लेकिन विकलांग लोगों की क्षमता को अनलॉक करने के लिए अभी भी अतिरिक्त प्रयास, पर्याप्त धन और विशेषज्ञता की कमी है। सरकार अब उन करोड़ों विकलांग लोगों की अनदेखी नहीं कर सकती, जिन्हें रिहैबिलिटेशन, स्वास्थ्य, सहायता, शिक्षा और रोजगार तक पहुंच से वंचित रखा गया है, और उन्हें कभी अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका नहीं मिला।”

सामाजिक बाधाएं बनती हैं डिप्रेशन का कारण

मन:स्थली की सीनियर साइकेट्रिस्ट एंड फाउंडर डॉ. ज्योति कपूर ने कहा, “कोविड-19 महामारी के दौरान, जिंदगी ने हमें सिखाया दिया है कि हमारा स्वास्थ्य बहुत नाजुक और कीमती है। हमने इस दौरान यह सीख लिया है कि विकलांग व्यक्ति किस तरह से अपनी जिंदगी जीते हैं। यह देखा गया है कि विकलांग लोगों में आत्महत्या या आत्मघाती विचारों के उत्पन्न होने का खतरा बढ़ गया है। विकलांग लोगों के लिए विभिन्न सामाजिक बाधाएं भी उनके लिए खतरनाक डिप्रेशन का शिकार बनाती हैं। जैसे आँखों से अंधे लोग जब बाहर निकल निकलते हैं तो उनके साथ बाहर भेदभाव किया जाता है और इस भेदभाव को वे महसूस भी करते हैं। इसी तरह एक विकलांग व्यक्ति को उसकी काम करने की जगह में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। दिव्यांग लोगों के प्रति एक गलत धारणा यह है कि एक विकलांग व्यक्ति को काम पर रखने के लिए ज्यादा महंगे रहन-सहन की आवश्यकता होगी, या लोग यह भी मानते हैं कि विकलांग लोग ज्यादा काम भी नहीं कर पाएंगे आदि। इसलिए विकलांग लोगों के खिलाफ इस तरह की भावना को रोकना चाहिए। इसके अलावा उनके साथ समान व्यवहार करने के लिए जागरूकता पैदा की जानी चाहिए ताकि वे समाज से जुड़ा हुआ महसूस कर सके।”