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मुक्तिबोध: स्वदेश की खोज – पुस्तक विमोचन के दौरान देश के नामचीन लेखकों को सुनने उमड़े लोग

रायपुर। ऐसा बहुत कम होता है जब साहित्य के किसी आयोजन में लोगों की अच्छी-खासी मौजूदगी देखने को मिलती है। सामान्य तौर पर साहित्यिक आयोजन में वे ही लोग उपस्थित रहते हैं जिनका कार्यक्रम से जुड़ाव रहता है या फिर बतौर वक्ता उन्हें अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होती है। पहली बार इससे उलट था। अभी इसी महीने 4 जून को जन संस्कृति मंच की रायपुर ईकाई द्वारा देश के प्रसिद्ध माक्र्सवादी विचारक राम जी राय की पुस्तक मुक्तिबोध:स्वदेश की खोज का विमोचन हुआ तो जितने लोग वृंदावन हाल के भीतर थे उतने ही लोग हाल के बाहर इस प्रतीक्षा में थे किसी तरह से एक गंभीर आयोजन का हिस्सा बन सकें। जन समुदाय की यह मौजूदगी सभी वर्ग और क्षेत्रों से थीं। इस मौके पर नवारुण प्रकाशन और जन संस्कृति मंच की तरफ से पुस्तक व पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई थीं। हिंदी पट्टी के किसी आयोजन में पुस्तकों की अच्छी-खासी बिक्री भी देखने को मिली।
कार्यक्रम की शुरुआत अजुल्का सक्सेना और वसु गंधर्व के गायन से हुई। दोनों ने मुक्तिबोध की कविता पर अपनी शास्त्रीय प्रस्तुति से सबका मन मोह लिया। अपने स्वागत वक्तव्य में जन संस्कृति मंच की रायपुर ईकाई के अध्यक्ष आनंद बहादुर ने बताया कि जसम देश के सबसे महत्वपूर्ण लेखकों, और संस्कृतिकर्मियों का संगठन है। पिछली 3 मई को जब रायपुर ईकाई का गठन हुआ तब यह बात बेहद शिद्दत से उठी थीं कि सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली राजनीति के विषैले-खतरनाक दौर में जब सबसे ज्यादा लेखकों और कलाकारों को मुखर होकर बोलने की आवश्यकता है तब वे खामोश हैं। जन संस्कृति मंच ने तय किया है कि वह जरूरी हस्तक्षेप जारी रखेगा। इस मौके पर मुक्तिबोध के पुत्र रमेश मुक्तिबोध, गिरीश मुक्तिबोध, दिलीप मुक्तिबोध के हाथों रामजी राय की कृति मुक्तिबोध स्वदेश की खोज का विमोचन किया गया।इस अवसर पर कृति के लेखक रामजी राय ने मुक्तिबोध की कर्मभूमि छत्तीसगढ़ में पुस्तक के विमोचन को एक उपलब्धि बताया। उन्होंने कहा कि यदि समकालीन जनमत की प्रबंध संपादक मीना राय ने सुझाव नहीं दिया होता तो शायद किताब का विमोचन यहां रायपुर में संभव नहीं हो पाता। लेखक राम जी राय अपने वक्तव्य  के दौरान बेहद भावुक भी हो उठे। उन्होंने कहा कि अगर मुक्तिबोध के समूचे लेखन को खोजने का काम रमेश मुक्तिबोध ने नहीं किया होता तो आज उनका समग्र लेखन हमारे सामने नहीं आ पाता। उन्होंने कहा कि फैंटसी भी यथार्थ को जानने का एक टूल होता है। सबकी अपनी-अपनी फैंटसी होती है न कि सिर्फ कलाकारों की। लेनिन ने कहा था – तुमने हथियार साधू से लिया या डाकू से ये महत्व नहीं रखता, इसका इस्तेमाल कहां करोगे ये मायने रखता है। उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध की भाषा पर भी काम होना चाहिए। उन्होंने कहा कि आजादी के समय से ही फासीवाद की झलक दिखने लगी थीं।आज फासीवाद अपने सबसे वीभत्स रुप में हमारे सामने हैं। फासीवाद को लेकर मुक्तिबोध की चिंता और अधिक जटिल यथार्थ की तरफ बढ़ रही है। हम केवल तर्कों से फासीवाद को हरा नहीं पाएंगे। इसे समझना होगा। इसके प्रतिवाद के लिए धरती पर कान लगाकर सुनना होगा।

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