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BIG NEWS : नॉनवेज के शौकीनों पर मंडरा रहा सुपरबग का खतरा! हर निवाले में है एंटीबायोटिक

BIG NEWS : Superbug threat hovering over non-veg enthusiasts! There’s an antibiotic in every bite

चीन में कोरोना के बीच वैज्ञानिक सुपरबग को लेकर चेता रहे हैं. उनका कहना है कि इस साल सुपरबग के चलते स्वस्थ लोगों की मौत हो सकती है. तो आगे बढ़ने से पहले एक बार सुपरबग को समझते चलें. ये पैरासाइट ही हैं, जो उस स्थिति में सुपरबग कहलाते हैं, जब उनपर दवाएं असर करना बंद कर दें. ऐसा एकाएक नहीं होता, बल्कि तब होता है, जब हमारा शरीर लगातार एंटीबायोटिक लेता रहे. फिर एक स्थिति वो आती है, जहां ड्रग्स का असर खत्म हो जाता है. यानी हम उसके लिए रेजिस्टेंट हो जाते हैं. ऐसे में सामान्य इंफेक्शन भी जान ले सकता है.

मांसाहार लेने वालों पर ये खतरा और ज्यादा

दरअसल पशुओं को जल्दी बड़ा करने के लिए उन्हें एंटीबायोटिक दी जा रही है. इससे ये दवाएं अनजाने में ही हमारे शरीर तक पहुंच रही हैं. धीरे-धीरे हमारा शरीर एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंट हो जाएगा, यानी दवाओं का असर खत्म हो जाएगा.

हमारे यहां भी यही प्रैक्टिस

अक्टूबर 2018 में एक खुलासा हुआ, जिससे मेडिकल साइंस की दुनिया में तहलका मच गया. लंदन की एक नॉन-प्रॉफिट संस्था द ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेटिव जर्नलिज्म ने दक्षिण के कुछ अखबारों के साथ मिलकर पता लगाया कि भारत में पशुओं को एंटीबायोटिक दी जा रही है, वो भी ऐसी, जो पश्चिम में बैन हो चुकी. रिपोर्ट में बताया गया कि कैसे वजन बढ़ाने के लिए इस्तेमाल होने वाली दवाएं न केवल पशुओं, बल्कि इंसानी सेहत तक से खिलवाड़ कर रही हैं.

कौन सी ड्रग दी जा रही है?

टायलोसिन ऐसी ही एक दवा है, जो ग्रोथ प्रमोटर की तरह दी जाती रही. साल 1998 में यूरोपियन यूनियन से मुर्गियों-बकरियों पर इसके इस्तेमाल को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया क्योंकि ये दवा एरिथ्रोमाइसिन का असर कम करती है. बता दें कि एरिथ्रोमाइसिन वो एंटीबायोटिक है, जो अक्सर चेस्ट इन्फेक्शन से लेकर कई बीमारियों में दी जाती है.

साल 2006 में ईयू ने एनिमल्स के विकास के नाम पर दी जाने वाली हर किस्म की एंटीबायोटिक को बैन कर दिया. हालांकि भारत समेत ज्यादातर देशों में इसपर कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं. यहां तक कि अमेरिका में भी इसपर कड़ा नियम नहीं.

लगभग सभी एशियाई देश घेरे में

साल 2019 में वर्ल्ड ऑर्गेनाइजेशन फॉर एनिमल हेल्थ ने पोल्ट्री पर एंटीबायोटिक के उपयोग को लेकर एक सर्वे किया, जिसमें पता लगा कि 155 में से 45 देश अपने यहां चिकन्स को धड़ल्ले से एंटीबायोटिक दे रहे हैं. इसमें किसी देश का नाम नहीं लिया गया, लेकिन बताया गया कि इस प्रैक्टिस में सभी एशियाई देश शामिल हैं, यानी भारत भी एक है. संस्था ने एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस की बात करते हुए आगाह किया कि ये जल्द से जल्द बंद होना चाहिए.

क्या है एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस

इसे एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस भी कहते हैं, यानी दवाओं का बेअसर होते जाना. ये तब होता है जब बैक्टीरिया या वायरस या किसी भी तरह के परजीवी अपना रूप बदलते हैं और समय के साथ दवाएं उनपर बेअसर हो जाती हैं. इससे गंभीर ही नहीं, मामूली इंफेक्शन भी खतरनाक साबित हो सकता है क्योंकि किसी एंटीबायोटिक का असर ही नही होगा.

बेहद खतरनाक है रेजिस्टेंस पैदा होना

ये कितना भयंकर है, इसका अनुमान आप इसी से लगा लीजिए कि साल 2019 में दुनियाभर में 12 लाख से ज्यादा मौतें एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस के चलते हुईं. मरीज बैक्टीरियल संक्रमण का शिकार थे लेकिन एंटीबायोटिक ने उनपर असर करना बंद कर दिया. मेडिकल जर्नल लैंसेट में छपी इस स्टडी में साफ कहा गया कि मौजूदा दवाओं का समझदारी से और थोड़ा रुककर इस्तेमाल हो ताकि इंसानी की अपनी इम्युनिटी भी बीमारी से मुकाबला कर सके.

एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस को आसान भाषा में इस तरह से भी समझ सकते हैं कि जैसे कोई शराब पीना शुरू करे तो पहले-पहल उसे हल्की डोज में भी नशा होता है, लेकिन धीरे-धीरे वो डोज नाकाफी हो जाती है. शरीर उसका आदी हो चुका होता है और नशे के लिए ज्यादा खुराक की मांग करता है. ठीक यही स्थिति एंटीबायोटिक के साथ होती है. एक समय के बाद शरीर पर कम खुराक काम नहीं करती और फिर एक स्थिति ऐसी आती है, जब उसपर एंटीबायोटिक का असर ही नहीं होता.

कैसे हो रहे हम एंटीबायोटिक रेजिस्टेंट

इसकी सीधी और पहली वजह है हर बात पर एंटीबायोटिक लेना. बहुत बार डॉक्टर भी इसे ओवरप्रेस्क्राइब करते हैं तो कई बार लोग ओवर द काउंटर भी एंटीबायोटिक ले लेते हैं. लेकिन नॉनवेजिटेरियन डायट लेने वालों पर खतरा ज्यादा बड़ा है. जब हम एंटीबायोटिक लेकर बड़े हुए एनिमल्स को खाते हैं तो हमारे भीतर ड्रग-रेजिस्टेंट बैक्टीरिया चले आते हैं.

पशुओं को क्या हो रहा नुकसान

इसका एक पूरा चक्र चलता है. उदाहरण के तौर पर लैब-ग्रोन मैमल, जैसे सुअर को ही लें तो ये प्राकृतिक तौर अपनी मां का दूध पीना 3 से 4 महीने की उम्र में छोड़ते हैं, लेकिन लैब में उन्हें 17 से 20 दिन के भीतर ही मां से अलग कर दिया जाता है. मदर्स मिल्क में मौजूद एंटीबॉडी न मिल पाने पर पशु जल्दी बीमार होता है, फिर इलाज के नाम पर उसे एंटीबायोटिक दिया जाता है. या फिर चिकन के केस में उसका वजन बढ़ाने के लिए एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल होता है. जल्द ही उसपर दवाएं बेअसर हो जाती हैं, तब तक वो हमारी थाली में पहुंच चुका होता है और हमारे भीतर भी वही बदलाव कर रहा होता है.

 

 

 

 

 

 

 

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